रिश्तों को कलंकित करती स्वार्थ की काली छाया

खून पुकारता है!’, ‘खून पानी से गाढ़ा होता है’, ‘अपना-अपना होता है’ जैसे अनेक जुमले अचानक थोथे क्यों दिखाई देने लगे? ऐसा लगता है कि हम अपनी संस्कृति को भुला बैठे हैं अथवा आदर्शों को व्यवहार में उतारने के बजाय उनके गीत गाने तक ही सीमित रहे हैं। इन घटनाओं में यदि हम कन्या भ्रूण-हत्याओं और वैवाहिक संबंधों में बढ़ती दरार को भी शामिल कर दें तो तस्वीर काफी भयावह दिखाई देने लगेगी। इस जहरीले वातावरण का दोषी कौन है और इसका समाधान क्या है?

यह प्रश्न समाज के हृदय को आंदोलित करना चाहिए। आखिर, पारिवारिक रिश्तों के बीच कैक्टस कौन बो रहा है? किसकी नजर लगी है, मेरे देश को? यदि इस प्रश्न का उत्तर चाहिए, तो अपने ही मन को टटोलना होगा। क्या हम सचमुच अपने संबंधों के प्रति ईमानदार हैं? कहीं यह सब पिछले कुछ वर्षाें से टीवी चैनलों पर परोसी जा रही तड़क-भड़क, विकृत संस्कृति, कामुकता, विवाहेत्तर संबंधों को अनदेखा करने के परिणाम तो नहीं हैं? दुखद आश्चर्य यह है कि देश के एक वर्ग को इसकी रत्ती-भर भी चिंता नहीं हैं। पश्चिम की अमर्यादित संस्कृति को यहां फलने-फूलने का मौका दिया जा रहा है। ऐसे में, संस्कारविहीन लोग अक्सर हिंसक होकर अपनों की जान लेने तक उतर आते हैं तो आश्चर्य की क्या बात है?

यह भोगवाद की संस्कृति और भौतिक पदार्थों की मृग-मरीचिका का उप-उत्पाद है, जो केवल अपने सुख-सुविधाओं और अहम के आगे सोचती ही नहीं जबकि हमारे सद्ग्रंथ हमें त्यागपूर्वक भोग की शिक्षा देते हैं। पूरे वातावरण को कलुषित करने वाली ऐसी घटनाएं हमारी शिक्षा प्रणाली को भारतीय संस्कृति के नैतिक पक्ष से विमुख करने के प्रति सावधान करती है। समाज में एक दूसरे के प्रति संवेदना हो, आवश्यकता पड़ने पर एक हाथ दूसरे हाथ की मदद करने के लिए खुद-बखुद आगे आना चाहिए।

ऐसे श्रेष्ठ संस्कार राष्ट्र की नई पीढ़ी में कैसे रोपित किये जाएं, यह चिंता पूरे समाज की होनी चाहिए। यह सर्वविदित है कि आज परिवार टूट रहे हैं संयुक्त परिवार एकाकी हो रहे हैं। यह भी शर्मनाक परंतु सत्य है कि अब परिवार तो क्या, उसका हर सदस्य भी एकाकी हो चला है। कुछ लोग पैसे की चमक-दमक और आत्म-केंिद्रत सोच को पारिवारिक तनाव और कटुता का कारण मानते हैं। यदि सचमुच ऐसा है, तो यह कैसी उन्नति है, जिसमें मनुष्य में मनुष्यता का लगातार पतन हो रहा है?

क्या आपका मन आपसे यह प्रश्न नहीं करता कि आखिर कहां पहुंच गए हैं हम और हमारा समाज? आपसी संबंधों में तनाव की परिणति हिंसा में होना सचमुच सिहरन पैदा करता है। इसके अनेक कारण हो सकते हैं। आज, हम एक ऐसे समाज का अंग बनते जा रहे हैं, जहां हर आदमी आत्म-केंिद्रत है उसमें स्वार्थ कूट-कूटकर भरा है कोई किसी की बात ही नहीं सुनना चाहता। अब, हर समय तो कोई आपकी प्रशंसा, स्तुति, वंदना नहीं कर सकता, गलत को गलत भी कहना पड़ता है। यदि परिवार के किसी एक सदस्य को अधिक धन अथवा यश प्राप्त होता है तो बाकी सदस्य उसे ईष्र्या के रूप में क्यों लें?

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